शहीद का मकबरा..
कंटीली झाड़ियो के पीछे,
एक चबूतरा नज़र आता है,
कुछ कुत्ते इस बौराई दुपहरी में,
यहाँ डेरा डालते हैं,कुछ मवेशी भी,
सुस्ता लेते हैं कभी कभी...
कहने वाले कहते हैं की ये,
चबूतरा नहीं,मकबरा है इक फौजी का,
पैसंठ या शायद बहत्तर की लड़ाई में,
इसे भी देशभक्ति के जूनून ने,
ये ईमारत इनायत कर दी..
नाम भी तो मालूम नहीं किसी को
इस शहीद का,
सभी चबूतरे वाला फौजी बुलाते हैं इसे,
सावन के आखिरी दिनों में,
जब बरसातें इस मकबरे को धुल देती हैं,
यहाँ एक मेला भी सजता है,
मगर वो फौजी अब भी बेनाम है..
जाने ऐसे कितने चबूतरे छितराए पड़े होंगे ,
बिना नाम,ला-शक्ल चबूतरे,
जहां मेले भी सजते होंगे वक्त बेवक्त,
मवेशी सुस्ताते होंगे और शायद,
कोई बेवा उस मकबरे को,
अपने आँचल से बुहारती होगी अब भी..
Tuesday, 13 December 2011
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